सियाही जैसे गिर जाए दम-ए-तहरीर काग़ज़ पर | मिर्ज़ा ग़ालिब
जुनूँ तोहमत-कश-ए-तस्कीं न हो गर शादमानी की
नमक-पाश-ए-ख़राश-ए-दिल है लज़्ज़त ज़िंदगानी की
कशाकश-हा-ए-हस्ती से करे क्या सई-ए-आज़ादी
हुइ ज़ंजीर-ए-मौज-ए-आब को फ़ुर्सत रवानी की
पस-अज़-मुर्दन भी दीवाना ज़ियारत-गाह-ए-तिफ़्लाँ है
शरार-ए-संग ने तुर्बत पे मेरी गुल-फ़िशानी की
न खींच ऐ सई-ए-दस्त-ए-ना-रसा ज़ुल्फ़-ए-तमन्ना को
परेशाँ-तर है मू-ए-ख़ामा से तदबीर मानी की
कहाँ हम भी रग-ओ-पै रखते हैं इंसाफ़ बहत्तर है
न खींचे ताक़त-ए-ख़म्याज़ा तोहमत ना-तवानी की
तकल्लुफ़-बरतरफ़ फ़रहाद और इतनी सुबु-दस्ती
ख़याल आसाँ था लेकिन ख़्वाब-ए-ख़ुसरव ने गिरानी की
‘असद’ को बोरिए में धर के फूँका मौज-ए-हस्ती ने
फ़क़ीरी में भी बाक़ी है शरारत नौजवानी की