अक्सर सुना है, पुरुषों का समाज है।
तुम्हारे ही हिसाब से चलता है और,
तुम्हारी ही बात करता है।
पर सच शायद थोड़ा अलग है॥
देखा है मैंने कितनों को,
इस पुरुषत्व का बोझ ढोते।
मन मार कर जीते और,
चुपचाप आँसुओं का घूंट पीते॥
हकीक़त की चाबुक से,
रोज मार खाते सपने।
रोज़ी रोटी के जुगाड़ से,
जुड़े सारे अपने।
रुपयों में तौला जाता व्यक्तित्व,
व्यवहार से सिर्फ नहीं जुड़ा होता अपनत्व।
किसी भी अंजान स्त्री को अपलक कुछ पल निहार कर,
अगले ही पल हिकारत भरी नज़रों का बन जाते हो शिकार।
कोई सरोकार नहीं किसी को तुम्हारे नज़रिये से,
कोई नहीं पूछता तुमसे तुम्हारे मन के विचार।
प्रेम करते हो पर अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं कर पाए
तो कायर हो तुम।
क्योंकि पुरुष हो तुम।
टूटकर रोना चाहते हो,
पर नहीं, तुम रो नहीं सकते,
रोते तो कमजोर हैं और तुम कमज़ोर नहीं हो सकते।
तुम्हे नहीं सिखाया जाता ज़िन्दगी को
सलीके से सहेजने का गुण,
क्योंकि पुरुष हो तुम।
स्त्री होना कठिन है तो
पुरुष होना भी कहाँ आसान है।
ज़िन्दगी भेदभाव नहीं करती,
बिना तकलीफों के किसी के संग नहीं चलती।
प्रतिस्पर्धी नहीं, पूरक हो तुम
क्योंकि पुरुष हो तुम।
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